कितनी यादे कितने वादे,
जब आये थे ले आये थे |
एक दूजे से मिलने का ,
हम वादा भी कर आये थे |
फर्क नहीं पड़ता था हमको,
दुनियाँ के जस्बातो से |
अपने अपने सपनो को,
हम मुट्ठी में भर लाये थे |
क्या खोया है हम सब ने,
अब ये अहसास डराता है |
टुटा फूटा जैसा भी था,
फिर याद खँडहर आता है |
सखा पुराने , नए बहाने,
अब भी ढूँढा करता हूँ |
कालिज नहीं मगर कालिज कि,
मस्ती ढूँढा करता हूँ |
हर चौराहे पर दिल का,
जो टूकड़ा फेक के आया था|
आज उसी चौराहे का मै,
रास्ता ढूँढा करता हूँ |
Best college of INDIA in terms of development and Corruption..(ताजमहल जल्द बनने वाला है |)
Sunday, May 30, 2010
Saturday, April 17, 2010
मैं भुला नाम अपना ही
किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |
वो चलना यार झुक कर के,
हवा के वेग के जैसा |
मैं भुला नाम अपना भी,
वो जब भी सामने आई |
बहुत चंचल हुआ करता था,
मैं भी उन दिनों में पर |
नहीं कुछ बोल पाया मैं,
वो जब भी सामने आई |
मैं यादों के समंदर में,
लगा गोते हुआ विजयी |
मगर वो दिल कि बातों को,
कहाँ अब भी समझ पाई |
सुना है अब तलक मुझसा,
एक साथी ढूंढती है वो |
जो उसके साथ था हरदम,
उसे वो ढूंढ ना पाई |
उसे नफ़रत थी गजलों से,
मुझे कुछ लोग कहतें थे |
हर ग़ज़ल नाम थी उसके,
जिसे वो पढ़ नहीं पाई |
किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |
वो चलना यार झुक कर के,
हवा के वेग के जैसा |
मैं भुला नाम अपना भी,
वो जब भी सामने आई |
बहुत चंचल हुआ करता था,
मैं भी उन दिनों में पर |
नहीं कुछ बोल पाया मैं,
वो जब भी सामने आई |
मैं यादों के समंदर में,
लगा गोते हुआ विजयी |
मगर वो दिल कि बातों को,
कहाँ अब भी समझ पाई |
सुना है अब तलक मुझसा,
एक साथी ढूंढती है वो |
जो उसके साथ था हरदम,
उसे वो ढूंढ ना पाई |
उसे नफ़रत थी गजलों से,
मुझे कुछ लोग कहतें थे |
हर ग़ज़ल नाम थी उसके,
जिसे वो पढ़ नहीं पाई |
किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |
Saturday, April 10, 2010
कॉलेज के नाम पर, लम्बा मैदान है,
हम भी होते नवाब, सजते अपने भी ख्वाब |
पर क्या करें जनाब, किस्मत अपनी ख़राब |
हम भी बुरे नहीं, सूरत भी है सही |
गम है इस बात का, कोई फंसती नहीं |
हांथों में जाम है, दिल में अरमान है |
जिस राहों में चले, अपनी पहचान हो |
रातों को हम जगे, कुछ भी न पढ़ सकें |
खोली जो बुक कभी, पढ़ते ही सो गए |
बैकों से है भरी, अपनी ये ज़िन्दगी ,
नेटवर्क दिखता नहीं, ada है सर फ़िरी |
गम पहले साल का, अबतक मेरे साथ है,
पर ये चिंता किसे, हम तो बिंदास है |
जो कुछ हमने पढ़ा, सब का सब लिख दिया,
नंबर आते नहीं, फिर मेरी क्या खता |
कॉलेज के नाम पर, लम्बा मैदान है,
खंडर में आ फंसी , हम सबकी जान है |
पर क्या करें जनाब, किस्मत अपनी ख़राब |
हम भी बुरे नहीं, सूरत भी है सही |
गम है इस बात का, कोई फंसती नहीं |
हांथों में जाम है, दिल में अरमान है |
जिस राहों में चले, अपनी पहचान हो |
रातों को हम जगे, कुछ भी न पढ़ सकें |
खोली जो बुक कभी, पढ़ते ही सो गए |
बैकों से है भरी, अपनी ये ज़िन्दगी ,
नेटवर्क दिखता नहीं, ada है सर फ़िरी |
गम पहले साल का, अबतक मेरे साथ है,
पर ये चिंता किसे, हम तो बिंदास है |
जो कुछ हमने पढ़ा, सब का सब लिख दिया,
नंबर आते नहीं, फिर मेरी क्या खता |
कॉलेज के नाम पर, लम्बा मैदान है,
खंडर में आ फंसी , हम सबकी जान है |
Monday, February 1, 2010
उपप्रधानाचार्य /संचालक
महात्मा गाँधी मिसन कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नालोजी के परम पूज्य प्रात : एवं संध्या स्मरणीय श्री श्री १०८ श्री सुनील वाघ जिनकी इस संस्था पर असीम कृपा दृष्टी प्रारंभ से प्रारब्ध तक बनी हुई है बिना संचालक महोदय के यह संस्था जल बिन मछली के सामान है इनकी जीतनी तारीफ कि जाये उतना ही कम है ऐसे ही महान व्यक्तित्व के सम्मान में चन्द पंक्तियाँ प्रस्तुत है ये बात उन दिनों कि है जब हमारे जैसे न जाने कितने प्राणी परम पूज्य संचालक महोदय कि क्षत्र-छाया में अपना जीवन यापन कर रहे थे
मुस्कान नहीं मुख पर जिसके,
वो यार ठहांके लेता है
उसके आँखों के खौफ से जब,
यहाँ हर एक बच्चा रोता है
जो हँसता हमें रूला करके,
खुश होता है तडपा करके
फर्क नहीं पड़ता जिसको,
हम सब के जस्बातों से
दाढ़ी के पीछे जिसने
दिल का हर राज़ छुपाया है
जिसने भी सच बोला है,
चुन चुन के उसे सताया है
है परिवर्तन को खौफ यहाँ,
मौसम भी डरा डरा सा है
हवा नहीं बहती उलटी,
शायद आनंद खफा सा है
Monday, January 25, 2010
मकबरा कहो या कहो ताज महल तुम,
आज तक ये खँडहर अपनी बुलंद है,
कौन कहेगा कि ईमारत बनी नहीं
हर ईंट चाट ली इन्होने घून कि तरह,
कौन कहेगा कि इन्हें धन मिला नहीं
मकबरा कहो या कहो ताज महल तुम,
ये लाश हमारी है जिसे छत मिला नहीं
ये स्तबल खुले हुए नौ साल हो गए,
चारा कहाँ गया, ये किसी को पता नहीं
रुसवा किया हमें, बाघ, लाड़कर ने पर,
कौन मानेगा , कदम को कुछ पता नहीं
हर वक़्त खड़ी है , यहाँ पर फ़ौज मराठा,
कोई भी मुह खोल कर, इनसे बचा नहीं
हर वक़्त हवा रुख बदलती है फिजा में पर,
MGM में आज तक कुछ भी हिला नहीं
Monday, January 11, 2010
प्रधानाचार्या
ये कविता पूरी तरह एम.जी.एम नॉएडा कि प्रधानाचार्या श्रीमती गीता लाड़कर को समर्पित है |जिन्होंने अपने कार्य काल के बहु मूल्य घंटे हमारे साथ बिताएं और हमें कभी अहसास नहीं होने दिया कि एम.जी.एम नॉएडा बाक़ी एम.जी.एम समुदाय का अभिन्न अंग है |जिनका नॉएडा दौरा सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत कार्यों से होता है,देहरादून,मसूरी,नैनीताल इनके ह्रदय के अत्यंत समीप है | मेरे दिल के भड़ास को व्यक्त करती कुछ पंक्तियाँ आप सभी के सम्मुख रखता हूँ |उम्मीद यही है आप सभी कि भावना को यथा संभव चित्रित कर सकूँ ...
खुद को माँ कहने वाली,
क्या जाने माँ जैसी बनना |
वचनों से प्रेम लूटाने वाली,
क्या जाने बच्चो संग रहना|
है पास नहीं जिसके दो पल,
खुद के छौनो से मिलने का|
गद्दों में जिसकी उम्र कटी,
क्या जाने दर्द बिछौनो का |
जो खुद महलों में रहती है,
क्या जाने दर्द खंडहर का|
है माँ कहलाना सरल मगर,
मुस्किल है माँ जैसी बनना |
है लाड़ नहीं जिसके कर में,
क्या जाने अर्थ लाड़कर का |
जो गागर सुखी भीतर से,
क्या जाने छलकाना ममता |
अंत में सिर्फ इतना कहना चाहूँगा ...
हो चरण कमल कोमल जिसके,
वो क्यूँ कंकर पर चरण धरे |
पर खुद को माँ कहने से पहले,
यारों थोडा तो शर्म करे |
क्या जाने माँ जैसी बनना |
वचनों से प्रेम लूटाने वाली,
क्या जाने बच्चो संग रहना|
है पास नहीं जिसके दो पल,
खुद के छौनो से मिलने का|
गद्दों में जिसकी उम्र कटी,
क्या जाने दर्द बिछौनो का |
जो खुद महलों में रहती है,
क्या जाने दर्द खंडहर का|
है माँ कहलाना सरल मगर,
मुस्किल है माँ जैसी बनना |
है लाड़ नहीं जिसके कर में,
क्या जाने अर्थ लाड़कर का |
जो गागर सुखी भीतर से,
क्या जाने छलकाना ममता |
अंत में सिर्फ इतना कहना चाहूँगा ...
हो चरण कमल कोमल जिसके,
वो क्यूँ कंकर पर चरण धरे |
पर खुद को माँ कहने से पहले,
यारों थोडा तो शर्म करे |
Thursday, January 7, 2010
कोई राज़ आर्यन आयेगा
जो हुआ नहीं नौ सालों में,
कुछ सालों में हो जायेगा
गुरुकुल कि हवा बदलने को,
कोई राज़ आर्यन आयेगा
पास में जिसके धन होगा,
और कुछ करने का मन होगा
सूखे पत्तों से यार सही,
थोडा परिवर्तन लायेगा
ये सिस्टम तो छननी है,
हर खोट यहाँ छन जाता है
ऊपर से छाजन शुरू हुआ,
कुछ शेष नहीं बच पाता है
अपनी नौ सालों कि मेहनत,
यूँ hi बेकार न जाएगी
शायद अगले कुछ सालों में,
मेहनत अपनी रंग लाएगी
माप दंड को कर किनार,
अब दंड माप पर हावी है
सब रुल नियम कानून यहाँ,
कुछ के हांथों कि दासी है
बेकार कि कार्य प्रबंधन है,
अपने प्रभुता का बंधन है
धन्य है वो मानुष जाती ,
जिसका इससे गठबंधन है
कुछ सालों में हो जायेगा
गुरुकुल कि हवा बदलने को,
कोई राज़ आर्यन आयेगा
पास में जिसके धन होगा,
और कुछ करने का मन होगा
सूखे पत्तों से यार सही,
थोडा परिवर्तन लायेगा
ये सिस्टम तो छननी है,
हर खोट यहाँ छन जाता है
ऊपर से छाजन शुरू हुआ,
कुछ शेष नहीं बच पाता है
अपनी नौ सालों कि मेहनत,
यूँ hi बेकार न जाएगी
शायद अगले कुछ सालों में,
मेहनत अपनी रंग लाएगी
माप दंड को कर किनार,
अब दंड माप पर हावी है
सब रुल नियम कानून यहाँ,
कुछ के हांथों कि दासी है
बेकार कि कार्य प्रबंधन है,
अपने प्रभुता का बंधन है
धन्य है वो मानुष जाती ,
जिसका इससे गठबंधन है
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