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Thursday, January 3, 2013

मैं धरा से तम का सारा, भय मिटाना चाहता हूँ ।।

सूर्य को आकाश से,
पृथ्वी पर लाना चाहता हूँ ।
मैं धरा से तम का सारा, 
भय मिटाना चाहता हूँ ।।

मैं चाहता हूँ मुक्त हो,
अब रोशनी की हर किरण ।
बस इसलिए  तूफान में,
दीपक जलना चाहता हूँ ।

लकड़ियाँ गीली हैं सत्ता की,
ये मैं भी जनता हूँ ।
सो जिद्द की खुरचन से, झूठ का, 
मैं वो महल जलाना चाहता हूँ ।

जानता हूँ, वो निघर्घट,
बेशरम है रहनुमा पर ।
मैं जिद्द के ढेले से किले को,
ध्वस्त करना चाहता हूँ ।

Sunday, November 27, 2011

"Ignore User" option and Mr. Wagh :-)


अपने ऊपर लिखी चार लाइनों से,
MGM Noida का शेर घबरा गया |
जल्दीबाज़ी में ऑरकुट कि टुच्ची सेवा,
"Ignore user " का फायदा उठा गया |

अब अच्छा हो या बुरा,
सब का सब मेंन गेट से लौट आता है,
कुछ अच्छा भी लिखना चहुँ तो,
"You cannot create this scrap." मैसेज उभर आता है |

Sunday, May 30, 2010

फिर याद खँडहर आता है

कितनी यादे कितने वादे,
जब आये थे ले आये थे |
एक दूजे से मिलने का ,
हम
वादा भी कर आये थे |
फर्क नहीं पड़ता था हमको,
दुनियाँ
के जस्बातो से |
अपने अपने सपनो को,
हम मुट्ठी में भर लाये थे |
क्या खोया है हम सब ने,
अब ये अहसास डराता है |
टुटा फूटा जैसा भी था,
फिर याद खँडहर आता है |
सखा पुराने , नए बहाने,
अब भी ढूँढा करता हूँ |
कालिज नहीं मगर कालिज कि,
मस्ती ढूँढा करता हूँ |
हर चौराहे पर दिल का,
जो टूकड़ा फेक के आया था|
आज उसी चौराहे का मै,
रास्ता ढूँढा करता हूँ |

Saturday, April 17, 2010

मैं भुला नाम अपना ही

किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |

वो चलना यार झुक कर के,
हवा के वेग के जैसा |
मैं भुला नाम अपना भी,
वो जब भी सामने आई |

बहुत चंचल हुआ करता था,
मैं भी उन दिनों में पर |
नहीं कुछ बोल पाया मैं,
वो जब भी सामने आई |

मैं यादों के समंदर में,
लगा गोते हुआ विजयी |
मगर वो दिल कि बातों को,
कहाँ अब भी समझ पाई |

सुना है अब तलक मुझसा,
एक साथी ढूंढती है वो |
जो उसके साथ था हरदम,
उसे वो ढूंढ ना पाई |

उसे नफ़रत थी गजलों से,
मुझे कुछ लोग कहतें थे |
हर ग़ज़ल नाम थी उसके,
जिसे वो पढ़ नहीं पाई |

किताबों को लगा दिल से,
वो पहली बार जब आई |
मैं भुला नाम अपना भी,
चली कुछ ऐसी पुरवाई |

Saturday, April 10, 2010

कॉलेज के नाम पर, लम्बा मैदान है,

हम भी होते नवाब, सजते अपने भी ख्वाब |
पर क्या करें जनाब, किस्मत अपनी ख़राब |

हम भी बुरे नहीं, सूरत भी है सही |
गम है इस बात का, कोई फंसती नहीं |

हांथों में जाम है, दिल में अरमान है |
जिस राहों में चले, अपनी पहचान हो |

रातों को हम जगे, कुछ भी पढ़ सकें |
खोली जो बुक कभी, पढ़ते ही सो गए |

बैकों से है भरी, अपनी ये ज़िन्दगी ,
नेटवर्क दिखता नहीं, ada है सर फ़िरी |

गम पहले साल का, अबतक मेरे साथ है,
पर ये चिंता किसे, हम तो बिंदास है |

जो कुछ हमने पढ़ा, सब का सब लिख दिया,
नंबर आते नहीं, फिर मेरी क्या खता |

कॉलेज के नाम पर, लम्बा मैदान है,
खंडर में फंसी , हम सबकी जान है |

Monday, February 1, 2010

उपप्रधानाचार्य /संचालक

महात्मा गाँधी मिसन कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नालोजी के परम पूज्य प्रात : एवं संध्या स्मरणीय श्री श्री १०८ श्री सुनील वाघ जिनकी इस संस्था पर असीम कृपा दृष्टी प्रारंभ से प्रारब्ध तक बनी हुई है बिना संचालक महोदय के यह संस्था जल बिन मछली के सामान है इनकी जीतनी तारीफ कि जाये उतना ही कम है ऐसे ही महान व्यक्तित्व के सम्मान में चन्द पंक्तियाँ प्रस्तुत है ये बात उन दिनों कि है जब हमारे जैसे न जाने कितने प्राणी परम पूज्य संचालक महोदय कि क्षत्र-छाया में अपना जीवन यापन कर रहे थे

मुस्कान नहीं मुख पर जिसके,
वो यार ठहांके लेता है
उसके आँखों के खौफ से जब,
यहाँ हर एक बच्चा रोता है
जो हँसता हमें रूला करके,
खुश होता है तडपा करके
फर्क नहीं पड़ता जिसको,
हम सब के जस्बातों से
दाढ़ी के पीछे जिसने
दिल का हर राज़ छुपाया है
जिसने भी सच बोला है,
चुन चुन के उसे सताया है
है परिवर्तन को खौफ यहाँ,
मौसम भी डरा डरा सा है
हवा नहीं बहती उलटी,
शायद आनंद खफा सा है

Monday, January 25, 2010

मकबरा कहो या कहो ताज महल तुम,

आज तक ये खँडहर अपनी बुलंद है,

कौन कहेगा कि ईमारत बनी नहीं

हर ईंट चाट ली इन्होने घून कि तरह,

कौन कहेगा कि इन्हें धन मिला नहीं

मकबरा कहो या कहो ताज महल तुम,

ये लाश हमारी है जिसे छत मिला नहीं

ये स्तबल खुले हुए नौ साल हो गए,

चारा कहाँ गया, ये किसी को पता नहीं

रुसवा किया हमें, बाघ, लाड़कर ने पर,

कौन मानेगा , कदम को कुछ पता नहीं

हर वक़्त खड़ी है , यहाँ पर फ़ौज मराठा,

कोई भी मुह खोल कर, इनसे बचा नहीं

हर वक़्त हवा रुख बदलती है फिजा में पर,

MGM में आज तक कुछ भी हिला नहीं